Thursday, December 06, 2007
पाश
आप लोहे की कार का आनंद लेते हो
मेरे पास लोहे की बंदूक है
मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो
लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती
जब कुठाली उठानेवालों के दिलों से
भाप निकलती है
तो लोहा पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को
किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है
कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ,
और पहाड उल्टानेवाली मशीनें,
सब लोहे के हैं
शहर से वीराने तक हर फर्क
बहन से वेश्या तक हर एहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता
बिल से कानून तक हर सफर
शोषणतंत्र से इन्कलाब तक हर इतिहास
जंगल, कोठरियों व झोपडियों से लेकर इंटरोगेशन तक
हर मुकाम सब लोहे के हैं
लोहे ने बडी देर तक इंतजार किया है
कि लोहे पर निर्भर लोग
लोहे की पत्तियां खाकर
खुदकशी करना छोड दें
मशीनों में फंसकर फूस की तरह उडनेवाले
लावारिसों की बीबियां
लोहे की कुर्सियों पर बैठे वारिसों के पास
कपडे तक उतारने के लिए मजबूर न हों
लेकिन आखिर लोहे को
पिस्तौलों , बंदूकों और बमों की
शक्ल लेनी पडी है
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीबी समझ सकते हैं,
(लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो .
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6 comments:
इस दुर्लभ तस्वीर के लिए धन्यवाद
बहुत कठिन व गम्भीर रचना हे । विचार जारी है ।
घुघूती बासूती
धन्यवाद अविनाश जी.
बासूती जी, आपकी विचार प्रक्रिया में किंचित हस्तक्षेप करने की इजाजत चाहूंगा. शायद यह अन्य कविता प्रेमियों के लिए भी उपयोगी हो . एक संकेत भर .
पाश कहते हैं - 'मैंने लोहा खाया है, आप लोहे की बात करते हो !' यहीं याद कीजिए, हिन्दी के कवि अरूण कमल जी की 1980 के दशक में लिखी गई कविता 'धार' - ' कौन बचा है जिसके आगे/ इन हाथों को नहीं पसारा /... अपना क्या है इस जीवन में / सब तो लिया उधार / सारा लोहा उन लोगों का / अपनी केवल धार '
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