Friday, November 30, 2007

ज्ञानेंद्रपति

ज्ञानेंद्रपति
वे जो

वे जो 'सर' कहाते हैं
धड भर हैं
उनकी शोधछात्राओं से पूछ देखो



हिंदी के लेखक के घर

न हो नगदी कुछ ख़ास
न हो बैंक बैलेंस भरोसेमंद
हिंदी के लेखक के घर, लेकिन
शाल-दुशालों का
जमा हो ही जाता है ज़ख़ीरा
सूखा-सूखी सम्मानित होने के अवसर आते ही रहते हैं
(और कुछ नहीं तो हिंदी-दिवस के सालाना मौके पर ही)
पुष्प-गुच्छ को आगे किए आते ही रहते हैं दुशाले
महत्त्व-कातर महामहिम अंगुलियों से उढ़ाए जाते सश्रद्ध
धीरे-धीरे कपड़ों की अलमारी में उठ आती है एक टेकरी दुशालों की
हिंदी के लेखक के घर
शिशिर की जड़ाती रात में
जब लोगों को कनटोप पहनाती घूमती है शीतलहर
शहर की सड़कों पर
शून्य के आसपास गिर चुका होता है तापमान,
मानवीयता के साथ मौसम का भी
हाशिए की किकुड़ियाई अधनंगी ज़िंदगी के सामने से
निकलता हुआ लौटता है लेखक
सही-साबुत. और कंधों पर से नर्म-गर्म दुशाले को उतार,
एहतियात से चपत
दुशालों की उस टेकरी पर लिटाते हुए
ख़ुद को ही कहता है
मन-ही-मन
हिंदी का लेखक
कि वह अधपागल ‘निराला’ नहीं है बीते ज़माने का
और उसकी ताईद में बज उठती है
सेल-फ़ोन की घंटी

उसकी छाती पर
ग़रूर और ग्लानि के मिले-जुले
अजीबोग़रीब
एक लम्हे की दलदल से
उसे उबारती हुई



1 comment:

अजित वडनेरकर said...

शानदार कविताएं ...