सुमित्रानंदन पंत
जीवन का अधिकार
जो है समर्थ , जो शक्तिमान,
जीवन का है अधिकार उसे ।
उसकी लाठी का बैल विश्व,
पूजता सभ्य संसार उसे !
दुर्बल का घातक दैव स्वयं,
समझो बस भू का भार उसे ।
'जैसे को तैसा' - नियम यही,
होना ही है संहार उसे ।
है दास परिस्थितियों का नर,
रहना है उसके अनुसार उसे।
जीता है योग्य सदा जग में ,
दुर्बल ही है आहार उसे !
तृण,झष, पशु से नर-तन देता,
जीवन विकास का तार उसे ।
वह शासन क्यों न करे भूपर,
चुनना है सब का सार उसे ।
जीवन का अधिकार
जो है समर्थ , जो शक्तिमान,
जीवन का है अधिकार उसे ।
उसकी लाठी का बैल विश्व,
पूजता सभ्य संसार उसे !
दुर्बल का घातक दैव स्वयं,
समझो बस भू का भार उसे ।
'जैसे को तैसा' - नियम यही,
होना ही है संहार उसे ।
है दास परिस्थितियों का नर,
रहना है उसके अनुसार उसे।
जीता है योग्य सदा जग में ,
दुर्बल ही है आहार उसे !
तृण,झष, पशु से नर-तन देता,
जीवन विकास का तार उसे ।
वह शासन क्यों न करे भूपर,
चुनना है सब का सार उसे ।
( मित्रो, यह कविता प्रकृति के सुकुमार कवि की है । ऐसे ही निराला कहते हैं ' योग्य जन जीता है, योग्य जन जीता है, पश्चिम की उक्ति नहीं,गीता है, गीता है !' ऐसी प्रतिगामी ,बर्बर, मध्ययुगीन वक्तवयों से हमारा महान हिंदी साहित्य भरा पडा है । आखिर क्यों कोई इनकी बात नहीं करता ? क्यों हमारे महान आलोचक इन पर चुप्पी साधे रहते हैं ? आखिर क्यों ? आप ही बताएं यह चुप्पी अनायास है या उन मध्युगीन मनुवादी मूल्यों को संरक्षित करने का एक नायाब तरीका ? मुझ जैसे लोग जब कहते हैं कि हिन्दी साहित्य का एक बडा हिस्सा आज भी मनु, तिलक और तुलसी का आधुनिक संस्करण है तो यही लोग हुआ-हुआ करने लगते हैं. )
No comments:
Post a Comment