Thursday, December 06, 2007

कुमार मुकुल



कुमार मुकुल ( अमरेंद्र कुमार मुकुल )




स्‍नेह की एक रेख

मैं
विश्‍वास का कैलाश उठाए
हिमालय से यहां तक
आ गया हूं मेरे दोस्‍त
मेरी अजानुभुजाएं सक्षम है इसे
सत्‍य की धरती पर
प्रतिस्‍थापित करने में
और इसे मैंने
अपना सर देकर नहीं
श्रम-स्‍वेद बहा अर्जित किया है
कि इस मरू को सब्‍ज देख सकूं
विष्‍णु का छल
अब मेरा बल घटा नहीं सकता
क्‍योंकि हमें समुद्र नहीं
एक और सुरसरि लानी है
ऐसे में मुझे
तुम्‍हारी टेक की नहीं
स्‍नेह की एक रेख की
जरूरत है .


( मुकुल भाई की यह खूबसूरत कविता 1990 में प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह ' सभ्‍यता और जीवन' से )



छाया - अविनाश

1 comment:

Kumar Mukul said...

अरे भाई इतनी पुरानी कविता छाप कर मुझे पिछले दिनों में लौटा ले गए आप । मेरा पहला संग्रह ,समुद्र के आंसू , था उस समय मुझ पर केदारनाथ सिंह का प्रभाव था और इस तरह के शीर्षक के पीछे उनकी कविताओं में पायी गयी ध्‍वनि थी। वह 1987 में आया था। इन दोनों संग्रहों को मैं किशोरों के लिए उपयुक्‍त मानता हूं। हां उसमें कुछ मौजूं कविताएं तो मिल ही जाएंगी या मौजू पंक्तियां ही। चलिए आप यह छाया अच्‍छा विकसित कर रहे हैं।