Friday, November 23, 2007





















व्‍यवहारिक बुद्धि

- संजय कुंदन


किसी शक्तिशाली की मूर्खता पर हंसो
हो सके तो प्रशंसा करो उसकी मूर्खता की
वह किसी भी समय सकता है काम


किसी अततायी से मत करो प्रश्
क्या ठिकाना
वही तुम्हार भागयनियंता बने किसी दिन


जीवन बडा कठिन है
इसलिए भावुकता से मत लो काम
समझाता है एक भावुक कवि
एक युवा कवि को

उस चर्चित भावुक कवि ने
जीवन भर कभी कोई फैसला नहीं किया
भावुक होकर

जो सफल है
वह सफल है
चाहे वह जैसे भी सफल है
उसकी सफलता का सम्मान करो
हो सके तो रोज उसे फोन करो

एक युवा कवि
एक दिन अपना घर फूंकने पर आमादा हो गया
वह ज्योंही लुकाठी लेकर बाहर निकला
उसे घेरकर खडे हो गए
प्रतिष्ठित कविगण, विद्वान
समझाया कि घर मत फूंको
‍‍‍‍‍घर रहेगा तभी कुर्सी होगी, टेबुल होगी
कागज होगा कविता होगी
कविता होगी तभी कवि कहलाओगे
पुरस्‍कार और प्रतिष्‍ठा पाओगे
जाओ कविता में लौट जाओ
यही व्यवहारिक बुद्धि है

( आलोचना, अक्टूबर-दिसंबर,2001 में प्रकाशित)

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